Tuesday, 27 July 2021

प्रेमचंद जयंती 31 जुलाई 2021

 








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Biography Munshi Premchand

जीवनी मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक थे । मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी (विद्वान) संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था,उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं। उनके पुत्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतराय हैं जिन्होंने इन्हें कलम का सिपाही नाम दिया था।

जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्‍होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।

सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोज़े-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अजीज दोस्‍त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। उन्‍होंने आरंभिक लेखन ज़माना पत्रिका में ही किया। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।

कार्यक्षेत्र

प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। " भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं।" प्रेमचंद के लेख 'पहली रचना' के अनुसार उनकी पहली रचना अपने मामा पर लिखा व्‍यंग्‍य थी, जो अब अनुपलब्‍ध है। उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उनका उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ। सोज़े-वतन यानी देश का दर्द। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशित हुई। कथा सम्राट प्रेमचन्द का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। १९२१ में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और १९३२ के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। उन्‍होंने मूल रूप से हिंदी में 1915 से कहानियां लिखना और 1918 (सेवासदन) से उपन्‍यास लिखना शुरू किया। प्रेमचंद ने कुल करीब तीन सौ कहानियाँ, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। गोदान उनकी कालजयी रचना है। कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्‍होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमीत।

कृतियाँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है।

उपन्‍यास

प्रेमचंद के उपन्‍यास न केवल हिन्‍दी उपन्‍यास साहित्‍य में बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्‍य में मील के पत्‍थर हैं। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्यासकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। चूंकि प्रेमचंद मूल रूप से उर्दू के लेखक थे और उर्दू से हिंदी में आए थे, इसलिए उनके सभी आरंभिक उपन्‍यास मूल रूप से उर्दू में लिखे गए और बाद में उनका हिन्‍दी तर्जुमा किया गया। उन्‍होंने 'सेवासदन' (1918) उपन्‍यास से हिंदी उपन्‍यास की दुनिया में प्रवेश किया। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा लेकिन इसका हिंदी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित कराया। 'सेवासदन' एक नारी के वेश्‍या बनने की कहानी है। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार 'सेवासदन' में व्‍यक्‍त मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता है। इसके बाद किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास 'प्रेमाश्रम' (1921) आया। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन 'सेवासदन' की भांति इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। 'प्रेमाश्रम' किसान जीवन पर लिखा हिंदी का संभवतः पहला उपन्‍यास है। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया। इसके बाद 'रंगभूमि' (1925), 'कायाकल्‍प' (1926), 'निर्मला' (1927), 'गबन' (1931), 'कर्मभूमि' (1932) से होता हुआ यह सफर 'गोदान' (1936) तक पूर्णता को प्राप्‍त हुआ। रंगभूमि में प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात कर चुके थे। गोदान का हिंदी साहित्‍य ही नहीं, विश्‍व साहित्‍य में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्‍य संबंधी विचारधारा 'आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद' से 'आलोचनात्‍मक यथार्थवाद' तक की पूर्णता प्राप्‍त करती है। एक सामान्‍य किसान को पूरे उपन्‍यास का नायक बनाना भारतीय उपन्‍यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। सामंतवाद और पूंजीवाद के चक्र में फंसकर हुई कथानायक होरी की मृत्‍यु पाठकों के जहन को झकझोर कर रख जाती है। किसान जीवन पर अपने पिछले उपन्‍यासों 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' में प्रेमंचद यथार्थ की प्रस्‍तुति करते-करते उपन्‍यास के अंत तक आदर्श का दामन थाम लेते हैं। लेकिन गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। यह उनकी आखिरी दौर की कहानियों में भी देखा जा सकता है। 'मंगलसूत्र' प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है। प्रेमचंद के उपन्‍यासों का मूल कथ्‍य भारतीय ग्रामीण जीवन था। प्रेमचंद ने हिंदी उपन्‍यास को जो ऊँचाई प्रदान की, वह परवर्ती उपन्‍यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्‍यास भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुए, खासकर उनका सर्वाधिक चर्चित उपन्‍यास गोदान।

असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक प्रकाशित। सेवासदन १९१८, प्रेमाश्रम १९२२, रंगभूमि १९२५, निर्मला १९२५, कायाकल्प १९२७, गबन १९२८, कर्मभूमि १९३२, गोदान १९३६, मंगलसूत्र (अपूर्ण), प्रतिज्ञा, प्रेमा, रंगभूमि, मनोरमा, वरदान।

कहानी

उनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद ने कुल ३०१ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें ३ अभी अप्राप्य हैं। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन नाम से जून १९०८ में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।

उनके जीवन काल में कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- सोज़े वतन, 'सप्‍त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा', 'मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद साहित्‍य के मु्दराधिकार से मुक्‍त होते ही विभिन्न संपादकों और प्रकाशकों ने प्रेमचंद की कहानियों के संकलन तैयार कर प्रकाशित कराए। उनकी कहानियों में विषय और शिल्प की विविधता है। उन्होंने मनुष्य के सभी वर्गों से लेकर पशु-पक्षियों तक को अपनी कहानियों में मुख्य पात्र बनाया है। उनकी कहानियों में किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदि की समस्याएं गंभीरता से चित्रित हुई हैं। उन्होंने समाजसुधार, देशप्रेम, स्वाधीनता संग्राम आदि से संबंधित कहानियाँ लिखी हैं। उनकी ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में ये नाम लिये जा सकते हैं-

'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बड़े भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि।

नाटक

प्रेमचंद ने संग्राम (1923), कर्बला (1924) और प्रेम की वेदी (1933) नाटकों की रचना की। ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।

लेख/निबंध

प्रेमचंद एक संवेदनशील कथाकार ही नहीं, सजग नागरिक व संपादक भी थे। उन्‍होंने 'हंस', 'माधुरी', 'जागरण' आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हुए व तत्‍कालीन अन्‍य सहगामी साहित्यिक पत्रिकाओं 'चाँद', 'मर्यादा', 'स्‍वदेश' आदि में अपनी साहित्यिक व सामाजिक चिंताओं को लेखों या निबंधों के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त किया। अमृतराय द्वारा संपादित 'प्रेमचंद : विविध प्रसंग' (तीन भाग) वास्‍तव में प्रेमचंद के लेखों का ही संकलन है। प्रेमचंद के लेख प्रकाशन संस्‍थान से 'कुछ विचार' शीर्षक से भी छपे हैं। प्रेमचंद के मशहूर लेखों में निम्‍न लेख शुमार होते हैं- साहित्‍य का उद्देश्‍य, पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिंदी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान आदि।

अनुवाद

प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। आजाद-कथा (उर्दू से, रतननाथ सरशार), पिता के पत्र पुत्री के नाम (अंग्रेजी से, जवाहरलाल नेहरू) उनके द्वारा रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिंदी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।

विविध

बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ, दुर्गादास
विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में)
संपादन : मर्यादा, माधुरी, हंस, जागरण

समालोचना

प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ज़मींदारी, कर्ज़खोरी, ग़रीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज़्यादातर रचनाएँ उनकी ही ग़रीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरा शुरू की।

प्रेमचंद के जीवन संबंधी विवाद

इतने महान रचनाकार होने के बावजूद प्रेमचंद का जीवन आरोपों से मुक्‍त नहीं है। प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाकर उनके साहित्‍य का महत्‍व कम करने की कोशिश की। प्रेमचंद पर लगे मुख्‍य आरोप हैं- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि। कमलकिशोर गोयनका द्वारा लगाए गए ये आरोप प्रेमचंद के जीवन का एक पक्ष जरूर हमारे सामने लाते हैं जिसमें उनकी इंसानी कमजोरियों जाहिर होती हैं लेकिन उनके व्‍यापक साहित्‍य के मूल्‍यांकन पर इन आरोपों का कोई असर नहीं पड़ पाया है। प्रेमचंद्र को लोग आज उनकी काबिलियत की वजह से याद करते हैं जो विवादों को बहुत कम जगह देती है।

मुंशी के विषय में विवाद

प्रेमचंद को प्रायः "मुंशी प्रेमचंद" के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। प्रोफेसर शुकदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन में निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था-
(हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
संपादक
मुंशी, प्रेमचंद
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र 'मुंशी' से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।

विरासत

प्रेमचंद ने अपनी कला के शिखर पर पहुँचने के लिए अनेक प्रयोग किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था । लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीजों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया। प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी, ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं।

प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

प्रेमचंद संबंधी नए अध्‍ययन

हिंदी साहित्‍य व आलोचना में प्रेमचंद को प्रतिष्ठित करने का श्रेय डॉ॰ रामविलास शर्मा को दिया जाता है परन्तु यह एक ग़लत धारणा है। दरअसल एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में प्रेमचंद की लोकप्रियता उनके जीवनकाल में ही इतनी ज़्यादा थी कि उन्हें 'उपन्यास सम्राट' कहा जाने लगा था। प्रेमचंद को स्थापित करने वाले उनके पाठक थे, आलोचक नहीं। प्रेमचंद के पत्रों को सहेजने का काम अमृतराय और मदनगोपाल ने किया। प्रेमचंद पर हुए नए अध्‍ययनों में कमलकिशोर गोयनका और डॉ॰ धर्मवीर का नाम उल्‍लेखनीय है। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद के जीवन के कमजोर पक्षों को उजागर करने के साथ-साथ प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य (दो भाग) व 'प्रेमचंद विश्‍वकोश' (दो भाग) का संपादन भी किया है। डॉ॰ धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूलयांकन करते हुए प्रेमचंद : सामंत का मुंशी व प्रेमचंद की नीली आँखें नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं।

पुरस्कार व सम्मान

प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३१ जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९४४ में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा २००५ में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अंग्रेज़ी व हसन मंज़र का किया हुआ उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।





Sunday, 25 July 2021

Book Selection Committee for Session ( 2021-22)

 








26July KARGIL VIJAY DIWAS

 KARGIL VIJAY DIWAS 26TH JULY 2021

👉 Just click and open- Quiz on Kargil Vijay Diwas 2021

Kargil Vijay Diwas is on 26th of July. On this date in 1999 India successfully took command of the high outposts. The Kargil war was fought for more than 60 days and ended on 26 July 1999, when the Pakistani army took advantage of the melting snow and - betraying the bilateral understanding of both the nations that the post would remain unattended during the winter season - took command of the high outposts of India. The Pakistani army denied involvement in the war, claiming that it was caused by independent Kashmiri rebel forces, however documents left behind by casualties and later statements by Pakistan's Prime Minister and Chief of Army Staff showed involvement of Pakistani paramilitary forces, led by General Ashraf Rashid.[1][2] The Kargil war resulted in loss of life on both the sides and was ended when India regained control over the post and ejected the Pakistani Army out of the territory.

Kargil Vijay Diwas
Kargil War Memorial, Operation Vijay.jpg
Kargil War Memorial
Observed byIndia
Date26 July
FrequencyAnnual

Kargil Vijay Diwas is celebrated on 26 July every year in honour of the Kargil War's Heroes. This day is celebrated in the Kargil–sector and the national capital New Delhi, where the Prime Minister of India pays homage to the soldiers at Amar Jawan Jyoti at India Gate every year.[3] Functions are also organized all over the country to commemorate the contributions of the armed forces.[4][5]

HistoryEdit

About Operation Vijay at Kargil War Memorial Dras.

After the Indo-Pakistani War of 1971, there had been a long period with relatively few direct armed conflicts involving the military forces of the two neighbours – not with standing the efforts of both nations to control the Siachen Glacier by establishing military outposts on the surrounding mountains ridges and the resulting military skirmishes in the 1980s. During the 1990s, however, escalating tensions and conflict due to separatist activities in Kashmir, as well as the conducting of nuclear tests by both countries in 1998, led to an increasingly belligerent atmosphere.[6]

In an attempt to defuse the situation, both countries signed the Lahore Declaration in February 1999, promising to provide a peaceful and bilateral solution to the Kashmir conflict. During the winter of 1998–1999, some elements of the Pakistani Armed Forces were covertly training and sending Pakistani troops and paramilitary forces, into territory on the Indian side of the line of control (LOC). The infiltration was code named "Operation Badri". The aim of the Pakistani incursion was to sever the link between Kashmir and Ladakh and cause Indian forces to withdraw from the Siachen Glacier, thus forcing India to negotiate a settlement of the broader Kashmir dispute. Pakistan also believed that any tension in the region would internationalize the Kashmir issue, helping it to secure a speedy resolution. Yet another goal may have been to boost the morale of the decade-long rebellion in Indian State of Kashmir by taking a proactive role.

Initially, with little knowledge of the nature or extent of the infiltration, the Indian troops in the area assumed that the infiltrators were jihadis and declared that they would evict them within a few days. Subsequent discovery of infiltration elsewhere along the LOC, along with the difference in tactics employed by the infiltrators, caused the Indian army to realize that the plan of attack was on a much bigger scale. The total area seized by the ingress is generally accepted to between 130 km² – 200 km².

The Government of India responded with Operation Vijay, a mobilization of 200,000 Indian troops. The war came to an official end on July 26, 1999, thus marking it as Kargil Vijay Diwas.

527 soldiers from Indian Armed Forces lost their lives during the war.[7]

Thursday, 22 July 2021

BAL GANGADHAR TILAK JAYANTI 23 JULY

 Bal Gangadhar Tilak Birthday Celebration 23 July 2021


Link for Quiz just click   👉 Quiz on Tilak Ji



Born: July 23, 1856
Died: August 1, 1920
Achievements: Considered as Father of Indian National Movement; Founded “Deccan Education Society” to impart quality education to India's youth; was a member of the Municipal Council of Pune, Bombay Legislature, and an elected 'Fellow' of the Bombay University; formed Home Rule League in 1916 to attain the goal of Swaraj. 



Bal Gangadhar Tilak is considered as Father of Indian National Movement. Bal Gangadhar Tilak was a multifaceted personality. He was a social reformer, freedom fighter, national leader, and a scholar of Indian history, sanskrit, hinduism, mathematics and astronomy. Bal Gangadhar Tilak was popularly called as Lokmanya (Beloved of the people). During freedom struggle, his slogan “Swaraj is my birthright and I shall have it” inspired millions of Indians. 

Bal Gangadhar Tilak was born on July 23, 1856 in Ratnagiri, Maharashtra. He was a Chitpavan Brahmin by caste. His father Gangadhar Ramachandra Tilak was a Sanskrit scholar and a famous teacher. Tilak was a brilliant student and he was very good in mathematics. Since childhood Tilak had an intolerant attitude towards injustice and he was truthful and straightforward in nature. He was among India's first generation of youth to receive a modern, college education.

When Tilak was ten his father was transferred to Pune from Ratnagiri. This brought sea change in Tilak’s life. He joined the Anglo-Vernacular School in Pune and got education from some of the well known teachers. Soon after coming to Pune Tilak lost his mother and by the time he was sixteen he lost his father too. While Tilak was studying in Matriculation he was married to a 10-year-old girl called Satyabhama. After passing the Matriculation Examination Tilak joined the Deccan College. In 1877, Bal Gangadhar Tilak got his B.A. degree with a first class in mathematics. He continued his studies and got the LL.B. degree too. 

After graduation, Tilak began teaching mathematics in a private school in Pune and later became a journalist. He became a strong critic of the Western education system, feeling it demeaning to Indian students and disrespectful to India's heritage. He came to the conclusion that good citizens can be moulded only through good education. He believed that every Indian had to be taught about Indian culture and national ideals. Along with his classmate Agarkar and great social reformer Vishnushastry Chiplunkar, Bal Gangadhar Tilak founded “Deccan Education Society” to impart quality education to India's youth.



The very next year after the Deccan Education Society was founded, Tilak started two weeklies, 'Kesari' and 'Mahratta'. 'Kesari' was Marathi weekly while 'Mahratta' was English weekly. Soon both the newspapers became very popular. In his newspapers, Tilak highlighted the plight of Indians. He gave a vivid picture of the people's sufferings and of actual happenings. Tilak called upon every Indian to fight for his right. Bal Gangadhar Tilak used fiery language to arouse the sleeping Indians. 

Bal Gangadhar Tilak joined the Indian National Congress in 1890. He was a member of the Municipal Council of Pune, Bombay Legislature, and an elected 'Fellow' of the Bombay University. Tilak was a great social reformer. He issued a call for the banning of child marriage and welcomed widow remarriage. Through the celebrations of Ganapati Festival and the birthday of the Shivaji he organized people. 

In 1897, Bal Gangadhar Tilak was charged with writing articles instigating people to rise against the government and to break the laws and disturb the peace. He was sentenced to rigorous imprisonment for one and a half year. Tilak was released in 1898. After his release, Tilak launched Swadeshi Movement. Through newspapers and lectures, Tilak spread the message to each and every village in Maharashtra. A big 'Swadeshi Market' was opened in front of Tilak's house. Meanwhile, Congress was split into two camps-Moderates and Extremists. Extremists led by Bal Gangadhar Tilak opposed the moderate faction led by Gopal Krishna. Extremists were in the favour of self rule while the moderates thought that time is not yet ripe for such an eventuality. This rift finally led to a split in the Congress.

Tilak was arrested on the charges of sedition in 1906. After the trial, Tilak was sentenced to six years of imprisonment in Mandalay (Burma). Tilak spent his time in prison by reading and writing. He wrote the book 'Gita-Rahasya' while he was in prison. Tilak was released on June 8, 1914. After his release, Bal Gangadhar Tilak tried to bring the two factions of Congress together. But his efforts did not bear much fruit. In 1916, Tilak decided to build a separate organization called the 'Home Rule League'. Its goal was swaraj. Tilak went from village to village, and explained the aim of his league to the farmers and won their hearts. He traveled constantly in order to organize the people. While fighting for people’s cause Bal Gangadhar Tilak died on August 1, 1920.

Wednesday, 14 July 2021

Nelson Mandela Birthday 18 July

 Celebration of Nelson Mandela Birthday 18 July 2021

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Nelson Mandela, in full Nelson Rolihlahla Mandela, byname Madiba, (born July 18, 1918, Mvezo, South Africa—died December 5, 2013, Johannesburg), Black nationalist and the first Black president of South Africa (1994–99). His negotiations in the early 1990s with South African Pres. F.W. de Klerk helped end the country’s apartheid system of racial segregation and ushered in a peaceful transition to majority rule. Mandela and de Klerk were jointly awarded the Nobel Prize for Peace in 1993 for their efforts.

Early life and work

Nelson Mandela was the son of Chief Henry Mandela of the Madiba clan of the Xhosa-speaking Tembu people. After his father’s death, young Nelson was raised by Jongintaba, the regent of the Tembu. Nelson renounced his claim to the chieftainship to become a lawyer. He attended South African Native College (later the University of Fort Hare) and studied law at the University of the Witwatersrand; he later passed the qualification exam to become a lawyer. In 1944 he joined the African National Congress (ANC), a Black-liberation group, and became a leader of its Youth League. That same year he met and married Evelyn Ntoko Mase. Mandela subsequently held other ANC leadership positions, through which he helped revitalize the organization and oppose the apartheid policies of the ruling National Party.

In 1952 in Johannesburg, with fellow ANC leader Oliver Tambo, Mandela established South Africa’s first Black law practice, specializing in cases resulting from the post-1948 apartheid legislation. Also that year, Mandela played an important role in launching a campaign of defiance against South Africa’s pass laws, which required nonwhites to carry documents (known as passes, pass books, or reference books) authorizing their presence in areas that the government deemed “restricted” (i.e., generally reserved for the white population). He traveled throughout the country as part of the campaign, trying to build support for nonviolent means of protest against the discriminatory laws. In 1955 he was involved in drafting the Freedom Charter, a document calling for nonracial social democracy in South Africa.

Mandela’s antiapartheid activism made him a frequent target of the authorities. Starting in 1952, he was intermittently banned (severely restricted in travel, association, and speech). In December 1956 he was arrested with more than 100 other people on charges of treason that were designed to harass antiapartheid activists. Mandela went on trial that same year and eventually was acquitted in 1961. During the extended court proceedings, he divorced his first wife and married Nomzamo Winifred Madikizela (Winnie Madikizela-Mandela).

Underground activity and the Rivonia Trial

After the massacre of unarmed Black South Africans by police forces at Sharpeville in 1960 and the subsequent banning of the ANC, Mandela abandoned his nonviolent stance and began advocating acts of sabotage against the South African regime. He went underground (during which time he became known as the Black Pimpernel for his ability to evade capture) and was one of the founders of Umkhonto we Sizwe (“Spear of the Nation”), the military wing of the ANC. In 1962 he went to Algeria for training in guerrilla warfare and sabotage, returning to South Africa later that year. On August 5, shortly after his return, Mandela was arrested at a road block in Natal; he was subsequently sentenced to five years in prison.

In October 1963 the imprisoned Mandela and several other men were tried for sabotage, treason, and violent conspiracy in the infamous Rivonia Trial, named after a fashionable suburb of Johannesburg where raiding police had discovered quantities of arms and equipment at the headquarters of the underground Umkhonto we Sizwe. Mandela’s speech from the dock, in which he admitted the truth of some of the charges made against him, was a classic defense of liberty and defiance of tyranny. (His speech garnered international attention and acclaim and was published later that year as I Am Prepared to Die.) On June 12, 1964, he was sentenced to life imprisonment, narrowly escaping the death penalty.

Incarceration

From 1964 to 1982 Mandela was incarcerated at Robben Island Prison, off Cape Town. He was subsequently kept at the maximum-security Pollsmoor Prison until 1988, when, after being treated for tuberculosis, he was transferred to Victor Verster Prison near Paarl. The South African government periodically made conditional offers of freedom to Mandela, most notably in 1976, on the condition that he recognize the newly independent—and highly controversial—status of the Transkei Bantustan and agree to reside there. An offer made in 1985 required that he renounce the use of violence. Mandela refused both offers, the second on the premise that only free men were able to engage in such negotiations and, as a prisoner, he was not a free man.

Throughout his incarceration, Mandela retained wide support among South Africa’s Black population, and his imprisonment became a cause célèbre among the international community that condemned apartheid. As South Africa’s political situation deteriorated after 1983, and particularly after 1988, he was engaged by ministers of Pres. P.W. Botha’s government in exploratory negotiations; he met with Botha’s successor, de Klerk, in December 1989.
On February 11, 1990, the South African government under President de Klerk released Mandela from prison. Shortly after his release, Mandela was chosen deputy president of the ANC; he became president of the party in July 1991. Mandela led the ANC in negotiations with de Klerk to end apartheid and bring about a peaceful transition to nonracial democracy in South Africa.

Presidency and retirement

In April 1994 the Mandela-led ANC won South Africa’s first elections by universal suffrage, and on May 10 Mandela was sworn in as president of the country’s first multiethnic government. He established in 1995 the Truth and Reconciliation Commission (TRC), which investigated human rights violations under apartheid, and he introduced housing, education, and economic development initiatives designed to improve the living standards of the country’s Black population. In 1996 he oversaw the enactment of a new democratic constitution. Mandela resigned his post with the ANC in December 1997, transferring leadership of the party to his designated successor, Thabo Mbeki. Mandela and Madikizela-Mandela had divorced in 1996, and in 1998 Mandela married Graca Machel, the widow of Samora Machel, the former Mozambican president and leader of Frelimo.
Mandela did not seek a second term as South African president and was succeeded by Mbeki in 1999. After leaving office Mandela retired from active politics but maintained a strong international presence as an advocate of peace, reconciliation, and social justice, often through the work of the Nelson Mandela Foundation, established in 1999. He was a founding member of the Elders, a group of international leaders established in 2007 for the promotion of conflict resolution and problem solving throughout the world. In 2008 Mandela was feted with several celebrations in South Africa, Great Britain, and other countries in honour of his 90th birthday.
Mandela Day, observed on Mandela’s birthday, was created to honour his legacy by promoting community service around the world. It was first observed on July 18, 2009, and was sponsored primarily by the Nelson Mandela Foundation and the 46664 initiative (the foundation’s HIV/AIDS global awareness and prevention campaign); later that year the United Nations declared that the day would be observed annually as Nelson Mandela International Day.
Mandela’s writings and speeches were collected in I Am Prepared to Die (1964; rev. ed. 1986), No Easy Walk to Freedom (1965; updated ed. 2002), The Struggle Is My Life (1978; rev. ed. 1990), and In His Own Words (2003). The autobiography Long Walk to Freedom, which chronicles his early life and years in prison, was published in 1994. An unfinished draft of his second volume of memoirs was completed by Mandla Langa and released posthumously as Dare Not Linger: The Presidential Years (2017).

Biography of Nelson Mandela

Rolihlahla Mandela was born into the Madiba clan in the village of Mvezo, in the Eastern Cape, on 18 July 1918. His mother was Nonqaphi Nosekeni and his father was Nkosi Mphakanyiswa Gadla Mandela, principal counsellor to the Acting King of the Thembu people, Jongintaba Dalindyebo. In 1930, when he was 12 years old, his father died and the young Rolihlahla became a ward of Jongintaba at the Great Place in Mqhekezweni1.

Hearing the elders’ stories of his ancestors’ valour during the wars of resistance, he dreamed also of making his own contribution to the freedom struggle of his people.


He attended primary school in Qunu where his teacher, Miss Mdingane, gave him the name Nelson, in accordance with the custom of giving all schoolchildren “Christian” names.

He completed his Junior Certificate at Clarkebury Boarding Institute and went on to Healdtown, a Wesleyan secondary school of some repute, where he matriculated.

Mandela began his studies for a Bachelor of Arts degree at the University College of Fort Hare but did not complete the degree there as he was expelled for joining in a student protest.

On his return to the Great Place at Mqhekezweni the King was furious and said if he didn’t return to Fort Hare he would arrange wives for him and his cousin Justice. They ran away to Johannesburg instead, arriving there in 1941. There he worked as a mine security officer and after meeting Walter Sisulu, an estate agent, he was introduced to Lazer Sidelsky. He then did his articles through a firm of attorneys – Witkin, Eidelman and Sidelsky.

He completed his BA through the University of South Africa and went back to Fort Hare for his graduation in 1943.


Nelson Mandela (top row, second from left) on the steps of Wits University.

(Image: © Wits University Archives)

Meanwhile, he began studying for an LLB at the University of the Witwatersrand. By his own admission he was a poor student and left the university in 1952 without graduating. He only started studying again through the University of London after his imprisonment in 1962 but also did not complete that degree.

In 1989, while in the last months of his imprisonment, he obtained an LLB through the University of South Africa. He graduated in absentia at a ceremony in Cape Town.

Entering politics

Mandela, while increasingly politically involved from 1942, only joined the African National Congress in 1944 when he helped to form the ANC Youth League (ANCYL).

In 1944 he married Walter Sisulu’s cousin, Evelyn Mase, a nurse. They had two sons, Madiba Thembekile "Thembi" and Makgatho, and two daughters both called Makaziwe, the first of whom died in infancy. He and his wife divorced in 1958.

Mandela rose through the ranks of the ANCYL and through its efforts, the ANC adopted a more radical mass-based policy, the Programme of Action, in 1949.

Nelson Mandela on the roof of Kholvad House in 1953.

(Image: © Herbert Shore, courtesy of the Ahmed Kathrada Foundation)


In 1952 he was chosen as the National Volunteer-in-Chief of the Defiance Campaign with Maulvi Cachalia as his deputy. This campaign of civil disobedience against six unjust laws was a joint programme between the ANC and the South African Indian Congress. He and 19 others were charged under the Suppression of Communism Act for their part in the campaign and sentenced to nine months of hard labour, suspended for two years.

A two-year diploma in law on top of his BA allowed Mandela to practise law, and in August 1952 he and Oliver Tambo established South Africa’s first black law firm, Mandela & Tambo.

At the end of 1952 he was banned for the first time. As a restricted person he was only permitted to watch in secret as the Freedom Charter was adopted in Kliptown on 26 June 1955.

The Treason Trial

Mandela was arrested in a countrywide police swoop on 5 December 1956, which led to the 1956 Treason Trial. Men and women of all races found themselves in the dock in the marathon trial that only ended when the last 28 accused, including Mandela, were acquitted on 29 March 1961.

On 21 March 1960 police killed 69 unarmed people in a protest in Sharpeville against the pass laws. This led to the country’s first state of emergency and the banning of the ANC and the Pan Africanist Congress (PAC) on 8 April. Mandela and his colleagues in the Treason Trial were among thousands detained during the state of emergency.

During the trial Mandela married a social worker, Winnie Madikizela, on 14 June 1958. They had two daughters, Zenani and Zindziswa. The couple divorced in 1996.

Days before the end of the Treason Trial, Mandela travelled to Pietermaritzburg to speak at the All-in Africa Conference, which resolved that he should write to Prime Minister Verwoerd requesting a national convention on a non-racial constitution, and to warn that should he not agree there would be a national strike against South Africa becoming a republic. After he and his colleagues were acquitted in the Treason Trial, Mandela went underground and began planning a national strike for 29, 30 and 31 March.

In the face of massive mobilisation of state security the strike was called off early. In June 1961 he was asked to lead the armed struggle and helped to establish Umkhonto weSizwe (Spear of the Nation), which launched on 16 December 1961 with a series of explosions.



Madiba travelled with his Ethiopian passport.

(Image: © National Archives of South Africa)

On 11 January 1962, using the adopted name David Motsamayi, Mandela secretly left South Africa. He travelled around Africa and visited England to gain support for the armed struggle. He received military training in Morocco and Ethiopia and returned to South Africa in July 1962. He was arrested in a police roadblock outside Howick on 5 August while returning from KwaZulu-Natal, where he had briefed ANC President Chief Albert Luthuli about his trip.

He was charged with leaving the country without a permit and inciting workers to strike. He was convicted and sentenced to five years' imprisonment, which he began serving at the Pretoria Local Prison. On 27 May 1963 he was transferred to Robben Island and returned to Pretoria on 12 June. Within a month police raided Liliesleaf, a secret hideout in Rivonia, Johannesburg, used by ANC and Communist Party activists, and several of his comrades were arrested.

On 9 October 1963 Mandela joined 10 others on trial for sabotage in what became known as the Rivonia Trial. While facing the death penalty his words to the court at the end of his famous "Speech from the Dock" on 20 April 1964 became immortalised:


“I have fought against white domination, and I have fought against black domination. I have cherished the ideal of a democratic and free society in which all persons live together in harmony and with equal opportunities. It is an ideal which I hope to live for and to achieve. But if needs be, it is an ideal for which I am prepared to die. ”Speech from the Dock quote by Nelson Mandela on 20 April 1964


On 11 June 1964 Mandela and seven other accused, Walter Sisulu, Ahmed Kathrada, Govan Mbeki, Raymond Mhlaba, Denis Goldberg, Elias Motsoaledi and Andrew Mlangeni, were convicted and the next day were sentenced to life imprisonment. Goldberg was sent to Pretoria Prison because he was white, while the others went to Robben Island.


Mandela’s mother died in 1968 and his eldest son, Thembi, in 1969. He was not allowed to attend their funerals.

On 31 March 1982 Mandela was transferred to Pollsmoor Prison in Cape Town with Sisulu, Mhlaba and Mlangeni. Kathrada joined them in October. When he returned to the prison in November 1985 after prostate surgery, Mandela was held alone. Justice Minister Kobie Coetsee visited him in hospital. Later Mandela initiated talks about an ultimate meeting between the apartheid government and the ANC.

A picture captured during a rare visit from his comrades at Victor Verster Prison.

(Image: © National Archives of South Africa)

Release from prison

On 12 August 1988 he was taken to hospital where he was diagnosed with tuberculosis. After more than three months in two hospitals he was transferred on 7 December 1988 to a house at Victor Verster Prison near Paarl where he spent his last 14 months of imprisonment. He was released from its gates on Sunday 11 February 1990, nine days after the unbanning of the ANC and the PAC and nearly four months after the release of his remaining Rivonia comrades. Throughout his imprisonment he had rejected at least three conditional offers of release.

Mandela immersed himself in official talks to end white minority rule and in 1991 was elected ANC President to replace his ailing friend, Oliver Tambo. In 1993 he and President FW de Klerk jointly won the Nobel Peace Prize and on 27 April 1994 he voted for the first time in his life.

President

On 10 May 1994 he was inaugurated as South Africa’s first democratically elected President. On his 80th birthday in 1998 he married Graça Machel, his third wife.

True to his promise, Mandela stepped down in 1999 after one term as President. He continued to work with the Nelson Mandela Children’s Fund he set up in 1995 and established the Nelson Mandela Foundation and The Mandela Rhodes Foundation.

In April 2007 his grandson, Mandla Mandela, was installed as head of the Mvezo Traditional Council at a ceremony at the Mvezo Great Place.

Nelson Mandela never wavered in his devotion to democracy, equality and learning. Despite terrible provocation, he never answered racism with racism. His life is an inspiration to all who are oppressed and deprived; and to all who are opposed to oppression and deprivation.

He died at his home in Johannesburg on 5 December 2013.


1. Nelson Mandela's father died in 1930 when Mandela was 12 and his mother died in 1968 when he was in prison. While the autobiography Long Walk to Freedom says his father died when he was nine, historical evidence shows it must have been later, most likely 1930. In fact, the original Long Walk to Freedom manuscript (written on Robben Island) states the year as 1930, when he was 12.


The Famous Book by Nelson Mandela 


Long Walk to Freedom is an autobiography written by South African President Nelson Mandela, and first published in 1994 by Little Brown & Co.[1] The book profiles his early life, coming of age, education and 27 years in prison. Under the apartheid government, Mandela was regarded as a terrorist and jailed on the infamous Robben Island for his role as a leader of the then-outlawed African National Congress (ANC). He later achieved international recognition for his leadership as president in rebuilding the country's once segregationist society.[2] The last chapters of the book describe his political ascension, and his belief that the struggle still continued against apartheid in South Africa.

Long Walk to Freedom

First edition

AuthorNelson MandelaCover artistAllan TannenbaumCountrySouth AfricaLanguageEnglishSubjectAutobiographyGenreNon-fictionPublisherLittle, Brown

Publication date


1994Media typePrint (hardback and paperback)Pages630 ppISBN0-316-87496-5OCLC39296287

Mandela dedicated his book to "my six children, Madiba and Makaziwe (my first daughter) who are now deceased, and to Makgatho, Makaziwe, Zenani and Zindzi, whose support and love I treasure; to my twenty-one grandchildren and three great-grandchildren who give me great pleasure; and to all my comrades, friends and fellow South Africans whom I serve and whose courage, determination and patriotism remain my source of inspiration."